Sunday, August 17, 2008

आज़ादी का दिन

आज़ादी का दिन था सोचा आम दिनों से कुछ अलग होना चाहिये ...सो कर उठा तो टीवी पर प्रधानमंत्री जी का भाषण शुरु हो चुका था .... खैर भाषण सुनते सुनते फटाफट तैयार हुआ ... नीचे आया देखा पूरी बिल्डिंग सूनसान सी थी, गेट पर एक दो वॉचमैन के सिवा कोई नज़र नहीं आ रहा था ... सड़क पर भी कोई ख़ास चहलकदमी नहीं .. तीन दिन का वीकएंड मिला था, लोग छुट्टी के मूड में थे ... देर तक सोएंगे ... फिर बाहर घूमने जांएगे ... बगैरह बगैरह, .... 15 अगस्त का क्या है ये तो कलैंडर की एक तारीख है जो हर साल आयेगी ........ थोडा मायूस हुआ लेकिन ज़्यादा दुख नहीं हुआ क्योकि हर साल लगभग यही नज़ारा होता है ... निकल पड़ा काम पर .. दफ्तर पहुंचा तो ज़ाहिर है बुलेटिन में आज सिर्फ स्वतंत्रता दिवस की ही खबरें थी ... आज़ादी और उससे संबन्धित तमाम ख़बरें मैं दिन भर पढ़ता रहा... उन सब के बीच एक ख़बर ने मेरे दिल को छू लिया ... जितनी बार वो ख़बर मेरे सामने से निकली दिल भर आया ... मेरठ के उस परिवार को सलाम करने का मन किया जिन्होने आज़ाद हिन्दुस्तान के उस तिरंगे को अभी तक संभाल कर रखा है जो 1947 में हुए कांग्रेस अधिवेशन में पं. जवाहर लाल नेहरू नें पहली बार मेरठ के विक्टोरिया पार्क पर फहराया था .... परिवार की तीसरी पीढ़ी का युवक अपने पिता के साथ जिस तरह उस झंडे को सहज़ करके रख रहा था .. कहने की ज़रूरत नहीं, वो धरोहर उस परिवार की जान ही है ... पैकेज के बीच में चली पिता की बाइट में वो भावुक होकर कह रहा था कि आज़ादी की लड़ाई में हज़ारों शहीदों के शवों को तो मैं कंधा नहीं दे पाया लेकिन इस झंडे को छू कर ऐसा लगता है कि मैं उन दिनों में पहुंच गया हूं और उन शहीदों के शवों को मैं अपने कंधे पर ले जा रहा हूं जिनके बलिदान से हमें आज़ादी मिली है और आज हम सर ऊंचा करके इस तिरंगे को सलाम कर पा रहे हैं ... इतना कहते कहते उसका गला भर आया और उसकी भावनाये आंखों से छलकने लगीं ..... दिन में जितनी बार ये दृश्य मेरी आंखों के सामने से गुज़रा मुझे लगा कि मै अभी मेरठ जाकर इस परिवार से मिलूं और उस तिरंगे का स्पर्श मै भी करूं जिसे हमारे देश के क्रांतिकारी नेताओं ने अपने हाथों से बना कर आज़ाद हिंदुस्तान में पहली बार फहराया था .... ...बुलेटिन के बाद स्टूडियो से निकल कर जब न्यूज़ रूम पहुंचा तो सबसे पहले मेरठ संवाददाता को फोन कर व्यक्तिगत तौर पर उसे धन्यवाद दिया कि उसने ऐसी स्टोरी हम तक पहुंचाई ....
खैर दफ्तर के रोज़मर्रा के कामों को निपटा कर मै घर लौट आया .... शाम को फुरसत के क्षणों में टीवी सर्फिंग कर रहा था ... लगभग हर चैनल आज़ादी के दिन को अपने अपने तरीके से सैलीब्रेट कर रहा था .. इन सबके बीच एक खबरिया चैनल पर मेंरी उंगलियां खुद ब खुद रुक गयीं ... वहां कुछ अलग चल रहा था ... कार्यक्रम की पैकेजिंग, एंकर और गेस्ट की बेतकल्लुफी बातें कार्यक्रम को आकर्षित बना रही थी ... इसके अलावा चैनल द्वारा आम लोगों से पूछे गये छोटे छोटे सवाल और उनके जवाबों को भी इस कार्यक्रम में पेश किया गया था .... कार्यक्रम की खुशनुमा शुरुआत से तो काफी आनन्दित हुआ लेकिन बाद में रिपोर्टरों द्वारा पूंछे गये छोटे छोटे सवालों के जो बेहूदे जवाब देश की राजधानी में रहने वाली पढ़ी लिखी जनता ने दिये उन्हे सुनकर दुख तो हुआ ही मायूसी और शर्मिंदगी भी हुई .... एक भद्र महिला से जब रिपोर्टर ने राष्ट्रगान सुनाने को कहा तो वो पड़ोस में खड़ी अपनी सहेली से पूंछने लगी कौन सा वाला राष्ट्रगान .... एक सज्जन व्यक्ति को सौ का नोट दिखा कर उस पर बने तीन शेरों वाले निशान पहचानने को कहा गया तो उन्होने उसे आरबीआई के किसी निशान के रूप में पहचाना .... किसी से पूछा गया कि तिरंगे के तीन रंगों का मतलब क्या है तो वो लगे बगलें झांकने. .... और ये तमाम लोग 20 साल से 35 साल के बीच के ही थे यानि उस युवा वर्ग से ताल्लुक रखते थे जिसका एक बड़ा हिस्सा मीडिया, आईटी जैसे सैक्टर्स में रोज़ाना झंडे गाढ़ रहा है .... देश 9 फीसद विकास दर पर भाग रहा है और इसमें आधे से ज्यादा हिस्सेदारी सेवा क्षेत्र की है जिसमें अधिकतर युवा ही काम करते हैं .... हम अभिनव बिन्द्रा की कामयाबी पर सीना चौड़ा करते हैं .... देश की युवा क्रिकेट टीम जब भी अच्छा खेलती है पूरा देश जश्न मनाता है ... बात जब राजनीति की हो तो राहुल गांधी जैसे नेताओं से हमारी अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं ... तो क्या हमें हमारे राष्ट्र से जुड़ी छोटी छोटी बातों की जानकारी नहीं होनी चाहिये .... क्या हम करियर संवारने और पैसा कमाने की आपाधापी में इतने व्यस्त हो गये हैं कि इन फालतू की चीज़ों के लिये समय न निकाल पायें .. इनकी परवाह करना ही छोड़ दें ... लेकिन ये बातें फालतू की तो बिल्कुल नहीं हैं ... अब आप कहेंगे कि अगर तिरंगे के रंगों का मतलब पता नहीं है तो वो तिरंगे का सम्मान नहीं करता हो या उसमें देश प्रेम की भावना नहीं है ऐसा ज़रूरी तो नहीं .... तो भाई साहब ये कैसा प्रेम हुआ जिसका मतलब ही आपको पता नहीं है .... ये तो वो बात हो गयी कि किसी से पूछा जाये आपके पिता का नाम क्या है और वो कहे कौन से वाले पिता का नाम ....... दिमाग में ये ही सब चल रहा था कि अचानक मेरी नज़र घड़ी की तरफ गयी, दस बज चुके थे ... सभी खाने की मेज पर मेरा इंतज़ार कर रहे थे ...

6 comments:

अनुराग मुस्कान said...

वाह...अच्छा लिखा है... दोस्त लिखना शुरू किया है तो अब इसे जारी रखना... लेख छोटा लिखने की आदत डालो... और हां, खबरों के जिस बाज़ार में हम-तुम बोली लगाते हैं उसमें खबरों की संवेदनाओं को महसूस करने का समय ही कहां मिल पाता है... पहली ख़बर पर रोने बैठो तो दूसरी ख़बर आकर अपने साथ ले जाती है और फिर ये सिलसिला चलता रहता है... बावजूद उसके तुमने संवेदनाओं को ज़ाहिर किया... ये क़ाबिल-ए-तारीफ़ है... बधाई...

aparna said...
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aparna said...
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aparna said...

think the point out of this Merut event is to remind us that freedom comes with corresponding responsibilities. But does any rational person dispute such an obvious truism? Not in theory. But in practice, we tend to collectively ignore one of the most important responsibilities demanded by freedom - the responsibility to tell the truth (as best we can) about ourselves and our condition; to be radically and humbly honest.
Its our Choice how we take our Independence Day like a date or like a day which remind us our responsibilities .............

Pawan Nishant said...

lage raho bhaiya.khabar ki gunbatta kai karanon se khatam ho rahi hai.

ब्लैंक पेज said...

बहुत अच्छा लिखा है..ऑफ़िस में बैठे लोग इस लेख को देखकर तुम्हारी पीठ पीछे कई बातें भी करेंगे..लेकिन हिलना मत...क्योंकि तुम्हें सबको हिलाना है...और मीडिया की दुनिया में एक झंडा गाड़ना है